कुछ करने की जब आंच होती हैं
तो नींद कहाँ आती हैं
सांस कहाँ थमती हैं
और पैंर कहाँ रूकती हैं
मंजिल तो हर मोड़ में होती हैं
तन्हाई की हर एक पल उस राह में
हौसला देती हैं
ताक़त देती हैं
अँधेरे की हर एक बूँद
किरणों की पैगाम लाती हैं
उम्मीदें तो बस कायम ही हैं
फांसले बस कम होती रहती हैं
आँखें तो आगे राह में होती हैं
सांसें तो मंजिल में ही लेनी होती हैं
दिल में तो इरादें पक्की होती हैं
और कदम तो अपने आप चल पड़ती हैं
मंजिल की दौर में मज़ा ही कुछ और होती हैं
मंजिल की दौर में मज़ा ही कुछ और होती हैं
मंजिल की दौर में मज़ा ही कुछ और होती हैं
2 comments:
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